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कविता

चैत में बवंडर

कमलेश


चैत में बवंडर
खेतों की मिट्टी उड़ा ले जा रहा है;
दुपहर में ही भरने लगा है
आसमान में अंधकार;
फेंकरने लगी हैं बिल्लियाँ
घरों से निकल कर;
सिवान में स्यार हुआँ-हुआँ करते हैं।

भाग रहे हैं ढोर
वन की ओर
आसमान की ओर मुँह उठा
रँभाती है गाय
बिलगता बछेड़ा
चुप हो जाता है।

कोई कहर नहीं आता
हो जाता शांत धीरे-धीरे यह उत्पात।
केवल खलिहान में पड़ी फसल में
गेहूँ का दाना
काला पड़ जाता है।

 


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